अष्टम भाव विचार
पहले आयु की परीक्षा कर पश्चात् लक्षण कहना चाहिए, क्योंकि आयुहीन के लिये लक्षण कहने का प्रयोजन ही नहीं है।।१।।
सब ग्रह अष्टम भाव में स्थित होने से मृत्यु देते हैं; लेकिन विशेषकरआठवें भाव में चन्द्रमा हो तो मृत्युकारक होता है।॥२॥
कृष्णपक्ष में दिन में और शुक्लपक्ष में रात्रि में जन्म हो तो अष्टम भाव तथा इस भाव स्थित चन्द्रमा भी माता के समान पालन करनेवाला होता है।॥३॥
पञ्चम भाव में चन्द्रमा, त्रिकोण (९।५) में गुरु, दशम में मंगल हो तोजातक १०० वर्ष जीता है।॥४॥
शनि यदि तुला, मकर, कुम्भ इनमें से किसी राशि में हो अथवा लग्न, छठे, तीसरे किसी भाव में हो तो अरिष्ट नहीं होता।।५।।
केंद्र में बली एक भी शुभग्रह हो तो सब दोष को नाश कर दीर्घायु बनाता है।।६।।
बुध, गुरु, शुक्र इनमें से एक भी केन्द्र में हो और सब क्रूरग्रह विरुद्ध भी हों तो भी सब दोष को नाश करता है, जिस प्रकार सिंह को देखकर मृग भाग जाता है, उसी प्रकर सब दोष भाग जाते हैं।॥७॥
चौथे, दशवें, लग्न, पञ्चम, नवम अथवा ग्यारहवें घर में बृहस्पति या शुक्र हों तो अनेक दोषों को नाश करते हैं।॥८॥
एक भी यह उच्च का होकर केन्द्र में हो और सब ग्रह अपने भाव के गु के अनुसार भी हों तो भी सूर्य के सामने अन्धकार की तरह अन्य प्रकृत सर्वारिष्ट नष्ट होते हैं।॥९॥
शुक लग्न में हो तो दश हजार दोष, बुध के लग्न में होने से हजार को और बृहस्पति लग्न में हो तो एक लक्ष दोष शान्त होते हैं।॥१०॥
कुंडली में अष्टम भाव का विचार
केन्द्र (११४/७/१०) या त्रिकोण (९।५) में बृहस्पति, शुक्र अथवा बुश् हों तो वह पुरुष दीर्घायु और राजप्रिय होता है।॥११॥
बृहस्पति धनु, मीन अथवा कर्क में होकर त्रिकोण या केन्द्र में हो तो उसपुरुष को कभी अरिष्ट नहीं होता है॥१२॥
जन्म लग्न में मेष, वृष या कर्क हो और उसमें राहु हो तो कृतापराध पुरुष की भी जिस प्रकार प्रसत्र राजा रक्षा करता है उसी प्रकार उसकी सब पीड़ाओं से रक्षा करता है।॥१३॥
यदि राहु तीसरे, छठें, ग्यारहवें घर में हो एवं कोई शुभग्रह देखता हो तो रुईपुञ्ज को जैसे पवन उड़ा देता है, उसी प्रकार सब दोषों को उड़ा देता है।॥१४॥ ॥ यदि लग्नेश बली होकर लाभ (११) में या तीसरे अथवा केन्द्र में हो तो मनुष्य के सर्वारिष्टों को दूर करके दीर्घायु और शरीर को आरोग्य करनेवाला होता है।॥१५॥
कुंडली में अष्टम भाव का विचार
गुरु-शुक्र में से कोई एक भी ग्रह केन्द्र अथवा नवम, पञ्चम में हो तो यह सर्वारिष्टों का नाश करता है।।॥१६॥
बुध, शुक्र, बृहस्पति इनमें से एक भी ग्रह बलवान् होकर केन्द्र में हो और वह कहे को नाश करता है
केवल एक पूर्ण बलवान् बृहस्पति भी यदि स्वक्षेत्री होकर केन्द्र में हो तो वाह अनेक दुस्तर दोषों को नाश करता है, जैसे भक्ति पूर्वक शिवजी को किया हुआ एक भी प्रणाम पापों को दूर कर देता है।॥१८॥
यदि लग्नेश पूर्ण बली क्रूरग्रहों से अदृष्ट तथा केन्द्रस्थित शुभग्रहों से दृष्ट हो तो वह मृत्यु से बचाकर दीर्घायु देता है और उसके घर को सब सम्पत्ति से परिपूर्ण करता है।॥१९॥
लग्न से अष्टम घर में चन्द्रमा यदि गुरु, शुक्र, बुध के द्रेष्काण का हो तो वही चन्द्रमा मृत्यु पाते हुए को भी निष्कपट रक्षा करता है।॥२०॥
सम्पूर्ण कलाओं से युत चन्द्रमा शुभग्रह की राशि में हो, अथवा शुभ ग्रहान्तर्गत हो तो अरिष्टों को नाश करता है। यदि शुक्र से दृष्ट हो तो विशेष करके अरिष्ट नाशक होता है।॥२१॥
यदि शुभग्रह के द्रेष्काणस्थ चन्द्रमा छठे घर में हो और शुभग्रह सब बली हों तो कल्याण का विस्तार करते हुए अरिष्टों को दूर करते हैं।॥२२॥
दो सौम्यग्रहों के बीच में पूर्ण बली चन्द्रमा बैठा हो तो नागों को जिस गरुड़ नाश करता है, उसी तरह सर्वारिष्टों को नाश करता
तरह है।॥२३॥ पूर्णबीर माया उदयी गुरु केन्द्र में हो तो सर्वारिष्टों को दूर कर देत
शुभग्रह के घर के अथवा शुभ नवांशों के या शुभग्रहों के द्रेष्काण के गुरु शुक्र, चन्द्र, बुध हों तो मनुष्य के सर्वारिष्टों को नाश करते हैं।॥२५॥
यदि चन्द्राधिष्ठित राशि का स्वामी या शुभग्रह केन्द्र में हो तो शिवस्मरण से जिस प्रकार पापनाश होता है, उसी तरह अरिष्टों का नाश होता है।॥२६॥
पापग्रह शुभग्रहों के वर्ग में एवं शुभवर्ग स्थित शुभग्रह से देखे जाते हों तो अरिष्ट नाश करते हैं। यथा विरक्ता (कुलटा) स्त्री पति का नाश करती है।॥२७॥
यदि सब ग्रह शीर्षोदय राशि में ही हों तो वे घृत को अग्नि की तरह
सर्वारिष्टों को नाश करते हैं।॥२८॥
जन्म काल में तत्काल युद्ध में जितने वाले शुभ ग्रह पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो वह मनुष्य के सर्वारिष्टों को वायु की तरह वृक्षों को नष्ट करता है।॥२९॥
अदि पूर्ण बली चन्द्रमा शुभग्रहों से दृष्ट हो तो वह धनों को अनीति की तरह सर्वारिष्टों को नाश करता है।॥३०
यदि तीसरे, छठें या ग्यारहवें घर में राहु हो तथा उस पर शुभग्रहों की एहि पड़ती हो तो वह सर्वारिष्टों को नाश करता है। और यदि शुभ या पापको व शोषोंदय राशियों में रहते हुए राहु को देखते हों तो भी अरिष्टों का नाश हेोता है।॥३१॥
यदि १२।११।६।३ इन किसी में केतु हो तो मृत्यु भय की शान्ति करने बाला होता है। और परस्पर त्रिकोण (९।५) में शुक्र, बृहस्पति और बुध हों तो भी अरिष्टों को शान्त करते हैं।॥३२॥
जिसकी उत्पत्ति सन्ध्या समय, वैधृति योग और व्यतीपात योग या भद्रा या गण्डान्त में हो तथा समस्त ग्रह दृश्य भाग (७।८।९।१०।११।१२।१) में हों तो अरिष्टों का नाश होता है।॥३३॥
स्थानादि बलों से परिपूर्ण शुभग्रह केन्द्र में हों और लग्न से अष्टम घर में कोई यह नहीं हो तो उस मनुष्य की बीस वर्ष की आयु होती है। यदि केन्द्रगत ग्रह शुभग्रह ने दृष्ट हो तो दश वर्ष युक्त बीस वर्ष (अर्थात् ३० वर्ष की) आयु होती है।॥३४॥
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यदि बृहस्पति अपने द्रेष्काण में एवं स्वगेही हो तो उस पुरुष की चालीस वर्ष की आयु होती है। और यदि उच्च्च का बृहस्पति लग्न में हो और उच्च का शुक्र केन्द्र में हो तो वह पुरुष सौ वर्ष जीता है।॥३५॥
उच्चस्य पूर्ण बलवान् चन्द्रमा लग्न में हो और सौम्यग्रह सब अपनी अपनी राशि के हों तो उसकी ६० वर्ष की आयु होती है। यदि सब शुभ ग्रह अपने मूलत्रिकोण में तथा अपने उच्च का बृहस्पति लग्न में हो तो उस मनुष्य
की आयु ८० वर्ष की होती है।॥३६॥
यदि लग्न, अष्टम तथा छठें घर में चन्द्रमा न हो और क्रूर ग्रह अपने क्षेत्र के हों और बली दो ग्रह दशम भाव में बैठे हों तो इस योग में उत्पन्न मनुष्य शतायु होता है, ऐसा मुनीन्द्रों ने कहा है।॥३७॥
यदि शुभग्रह केन्द्र में हों और अष्टम घर में कोई भी ग्रह न हो तथा लाग्न में बृहस्पति और नवम घर में चन्द्रमा हो तथा उन्हें पापग्रह न देखते हों तो उस मनुष्य की ७० वर्ष की आयु होती है।॥३८॥
यदि लग्न से अष्टम घर में सूर्य हो तो अग्नि के निमित्त से, चन्द्रमा हो तो जल से, मङ्गल हो तो शस्त्र से, बुध हो तो घोर ज्वर से, बृहस्पति हो तो दुःसाध्य किसी रोग से, शुक्र हो तो अत्यन्त क्षुधा वा वमन और शनि हो तो तृषा के निमित्त से उस मनुष्य की मृत्यु होती है।॥३९॥
यदि लग्न से दशम या पञ्चम में गुरु, बुध, चन्द्रमा और शुक्र हों तो वह मनुष्य धनपरिपूर्ण, वेद में पारंगत और पूर्ण शतायु होता है।॥४०॥
यदि नवम, पञ्श्चम बृहस्पति हो, सप्तम घर में बुध और लग्न में शुक्र चन्द्र हो तो वह मनुष्य १०० वर्ष तक जीता है।॥४१॥
सूर्यादि सप्त ग्रह अष्टम घर में हों तो उस मनुष्य की क्रम से अग्नि, जल, और जीर्णज्वर और क्षुधा, तृषा के निमित्त से मृत्यु होती है। यदि लग्न से आम भाव में चरराशि हो तो परदेश में मृत्यु जानना ।।४२॥
अथवा जो ग्रह बलवान् होकर अष्टम घर को देखता हो उसी के अनुसार यामित धातु प्रकोप से उसकी मृत्यु होती है। और लग्न में जो द्रेष्काण हो उससे २२ वाँ द्रेष्काण मरण का होता है।॥४३॥
जन्म समय में जो ग्रह अष्टम में स्थित हो उसी ग्रह के लोक को प्राणी प्रयाण करता है अथवा ६-८ इन दोनों में जिसका द्रेष्काण उदय हो और इन दोनों द्रेष्काण में से जो ग्रह बली हो उसी लोक को जाता है। जैसे बृहस्पति होवे तो देवलोक को चन्द्र-शुक्र हों तो पितृलोक को, मङ्गल-सूर्य हों तो मत्र्यलोक को और बुध शनि हों तो उस पुरुष को नरक में प्राप्त कराते हैं।॥४४॥
जिसके जन्मकालिक छठें आठवें और केन्द्र में बृहस्पति उच्च का होकर बैठा हो अथवा बली होकर जन्मलग्न मीन में बैठा हो और सब ग्रह निर्बल हैं तो वह मनुष्य मुक्ति को प्राप्त होता है।॥४५॥
जन्मकाल में सूर्य और चन्द्रमा इन दोनों में से जो बली हो वह जिस देष्काण में पड़े उसका अधिपति, अगर बृहस्पति हो तो देवलोक से, चन्द्रमा वा शुक्र हो तो पितृलोक से, सूर्य या मङ्गल हो तो पशुयोनि से और शनि- बुध हो तो नरक से आया हुआ जातक को समझो।॥४६॥
लग्न से अष्टम स्थान में चरराशि हो तो विदेश में, स्थिर हो तो स्वदार में तथा द्विस्वभाव हो तो मार्ग में मृत्यु कहना ।।४७।।
यदि अष्टम घर में कोई ग्रह न हो और उसे बलवान् कोई ग्रह देखता है। तो उसकी मृत्यु उसी ग्रह के धातुकोप के अनुसार कहनी चाहिए।॥४८॥
पित्त, कफ, पित्त, त्रिदोष, कफ, वायु और वायु इस प्रकार क्रमर सूर्यादि ग्रहों के धातु विकार से मृत्यु के कारण प्राक्तन जातकज्ञों ने कहे। यथा सूर्य के निमित्त से मृत्यु हो तो हो तो पित्त से, चन्द्रमा हो तो कफ से, इ क्रम से और भी ग्रहों के धातु विकार जानना।।४९।।
श्री रस्तू शुभम्