वास्तु में दिशाओं का महत्व
वास्तुशास्त्र दिशात्मक ऊर्जा पर आधारित एक व्यावहारिक विज्ञान है। वास्तु विज्ञान में आठ दिशाओं अर्थात चार मुख्य दिशाएं उतर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम तथा चार कोणीय दिशाओं उचर-पूर्व (ईशान्य), दक्षिण-पूर्व (आग्नेय), दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) और उतर-पश्चिम (वायव्य) के आधार पर पूरे वास्तु की गणना की जाती है। सभी कोणीय दिशाओं पर दोनो दिशाओं का संयुक्त प्रभाव रहता है। अतः वास्तुशास्त्र में प्रत्येक दिशा का अपना अलग महत्व होता है क्योंकि प्रत्येक दिशा पर अलग-अलग ग्रहों, देवताओं तथा विभिन्न दिशाओं से आने वाली ब्रह्मांडीय शक्ति, रश्मि एवं ऊर्जाओं का संयुक्त प्रभाव रहता है।
वास्तुशास्त्र में दिशाओं का निर्धारण

इस कारण से हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्ष पूर्व इस बात की आवश्यकता महसूस की कि दिशाओं को ठीक रखना चाहिए ताकि अच्छे वास्तु के साथ मनुष्य सुख-शांति, समृद्धि एवं आरोग्य पूर्वक अपने जीवन को व्यतीत कर सके। वास्तु में दिशाओं का निर्धारण दिशा सूचक यंत्र के द्वारा यंत्र के भूखंड के केन्द्र में रखकर किया जाता है।
Vastu Me Dishaon Ka Mahatva
पूर्व दिशा
चुम्बकीय कंपास के अनुसार 67% से 112½° तक के क्षेत्र को पूर्व दिशा कहा गया है। इस दिशा का स्वामी ग्रह सूर्य एवं देवता इन्द्र हैं। सूर्य पूर्व दिशा में उगता है इस कारण से प्रथम स्थान दिया गया है।
यह दिशा अच्छे स्वास्थ्य, बुद्धि, धन, भाग्य एवं सुख-समृद्धि का द्योतक है। अतः भवन निर्माण के साथ पूर्व दिशा का कुछ स्थान खुला छोड़ देना चाहिए एवं इस स्थान को नीचा रखना चाहिए। अन्यथा पितृगण का आशीर्वाद नहीं मिल पायेगा।
घर में मुखिया का स्वास्थ्य खराब रहेगा तथा आयु में कमी होगी। साथ ही वंश की हानि होने की संभावना बनी रहेगी। इस दिशा के दोषपूर्ण होने पर सिर, दाँत, जीभ, मुंह एवं हृदय संबंधी बीमारियां देखने को मिलती हैं।
पश्चिम दिशा
चुम्बकीय कंपास के अनुसार 247½° से लेकर 292%° के मध्य क्षेत्र को पश्चिम दिशा कहा जाता है। इस दिशा का स्वामी ग्रह शनि एवं देवता वरूणदेव हैं। यह दिशा सफलता, प्रसिद्धि, संपन्नता तथा उज्ज्वल भविष्य प्रदान करती है। इस दिशा में गड्डा, दरार, नीचा एवं दोषपूर्ण रहने पर मन चंचल रहता है, मानसिक तनाव बना रहता है और किसी भी कार्य में पूर्ण रूप से सफलता नहीं मिल पाती है। साथ ही गुप्तांग एवं पेट से संबंधित परेशानियां पायी जाती हैं। साम
उत्तर दिशा
चुम्बकीय कंपास के अनुसार 337½° से लेकर 22½° के मध्य क्षेत्र को उत्तर दिशा कहा जाता है। इस दिशा के स्वामी ग्रह बुध एवं देवता कुबेर है। यह दिशा सभी प्रकार के सुख देती है। यह दिशा बुद्धि, ज्ञान, चिंतन, मनन, विद्या एवं धन के लिए शुभ होती है। यह दिशा मातृ भाव का भी द्योतक है। उत्तर स्थान में खाली स्थान छोड़कर भवन का निर्माण करने से माता का लाभ एवं सभी प्रकार के भौतिक सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। इस दिशा को ऊँचा एवं दोषपूर्ण रखने पर छाती, दिल एवं फेफड़े से संबंधित रोगों रोगों की की अधिकता अधिकता । पायी जाती है।
दक्षिण दिशा
चुम्बकीय कंपास के अनुसार 157½° से 202½° के मध्य क्षेत्र को दक्षिण की दिशा कहा जाता है। इस दिशा का स्वामी ग्रह मंगल एवं देवता यम् है। यह दिशा सफलता, यश, पद, प्रतिष्ठा एवं धैर्य की द्योतक है। यह दिशा पिता के सुख का भी कारक है।
यह दिशा बायां सीना एवं मेरूदंड का भी कारक है। इस दिशा को जितना भारी एवं ऊँचा रखेंगे उतना ही लाभदायी सिद्ध होता है। इस दिशा में दर्पण एवं पानी की व्यवस्था रखने पर बीमारी की संभावनायें बनी रहती हैं।
आग्नेय क्षेत्र
चुम्बकीय कंपास के अनुसार 112½° से 157½° के मध्य क्षेत्र को आग्नेय दिशा कहा गया है। इस दिशा का स्वामी ग्रह शुक्र एवं देवता अग्नि है। इस दिशा का संबंध स्वास्थ्य से है। साथ ही यह दिशा बार्थी भुजा, घुटना एवं बायें नेत्र को प्रभावित करता है। यह दिशा परमात्मा की सृष्टि को आगे बढ़ाता है अर्थात् प्रजनन क्रिया एवं काम जीवन पर इस दिशा का अधिकार है। यह दिशा निद्रा एवं उचित शयन सुख को भी दर्शाता है।
यदि इस दिशा में किसी तरह का दोष हो जैसे आग्नेय दिशा में पानी व अंडरग्राउन्ड टैंक का होना बहुत बड़ी मुसीबतों को निमंत्रण देता है। स्त्रियां, पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा नुकसान में रहती हैं। किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य खराब रहता है। घर का कोई न कोई सदस्य बीमार रहता है और अन्य सदस्यगण आलसी हो जाते हैं। यह दिशा दोषरहित रहने पर घर में रहने वाले को उर्जावान बनाती है साथ ही घर के मुखिया को संतान एवं पत्नी का उत्तम सुख देती है।
नैर्ऋत्य क्षेत्र
चुम्बकीय कंपास के अनुसार 202%° से लेकर 247%° के मध्य के क्षेत्र को नैर्ऋत्य दिशा कहते हैं। इस दिशा का स्वामी राहु एवं देवता नैर्ऋति नामक राक्षसी है। यह दिशा असुर, क्रूर कर्म करने वाले व्यक्ति या भूत पिशाचूँ की दिशा है। इसलिए इस दिशा को कभी खाली या रिक्त नहीं रखना चाहिए। दक्षिण-पश्चिम का क्षेत्र पृथ्वी तत्व के लिए निर्धारित है। यह सभी तत्वों से स्थिर है।
यह दिशा सभी प्रकार की विषमताओं एवं संघर्षों से जूझने की क्षमता प्रदान करती है साथ ही स्थायित्व, सही निर्णय एवं किसी भी निर्णय को मजबूती से दिलवाने में मदद करती है। यह दिशा आयु अकस्मात् दुर्घटना, बाहरी जनेन्द्रीयां, बायां पैर, कुल्हा, किडनी, पैर की बीमारियां, स्नायु रोग आदि का प्रतिनिधित्व करती है।
यदि इस क्षेत्र में गद्दा नीचा और पानी हो तो गृह स्वामी जीवित लाश बनकर रह जाता है। भाग्य सो जाता है। अकाल मृत्यु, दुर्घटना, पोलियो तथा कैंसर जैसे असाध्य बीमारियों का सामना करना पड़ता है। जीवन में फटेहाली एवं गरीबी छा जाती है।
वायव्य क्षेत्र
292%° से लेकर 337½° के मध्य के क्षेत्र को वायव्य कहा जाता है। इस दिशा में ग्रहों के रूप में चंद्र एवं देवताओं के रूप में पवनदेव का स्थान माना गया है। यह मित्रता एवं शत्रुता को बतलाता है। इस दिशा का संबंध अतिथियों एवं संबंधियों से है।
यह दिशा मानसिक विकास एवं विद्वत्ता की परिचायक है। साथ ही काल पुरुष के शरीर में नाभी, आँत, पित्ताशय, शुक्राणु, गर्भाशय, पेट का उपरी भाग, दायां पैर एवं घुटने का भी प्रतिनिधित्व करता है।
यदि इस दिशा में किसी तरह का दोष हो जैसे वायव्य क्षेत्र का ईशान्य क्षेत्र की अपेक्षा नीचा रहना, वायव्य क्षेत्र में अत्यधिक ऊँचे भवनों का निर्माण तथा वायव्य क्षेत्र को नैर्ऋत्य एवं आग्नेय क्षेत्र की अपेक्षा ऊँचा होना शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करेगा एवं स्त्रियों को रोग ग्रास्त बनाएगा। साथ ही नेत्र ज्योति में कमी, अस्थमा, गर्भाशय एवं पाचन शक्ति से संबंधित रोगों से सामना करना पड़ेगा।
ईशान्य क्षेत्र
मृत्युजय
चुम्बकीय कंपास से 22%° से 67%° के मध्य के क्षेत्र को ईशान्य क्षेत्र कहा जाता है। इस दिशा का स्वामी ग्रह गुरु और परमपिता परमेश्वर स्वयं हैं। यह दिशा बुद्धि, ज्ञान, विवेक, धैर्य और साहस का सूचक है। इस दिशा को साफ-सुथरा, खुला, नीचा एवं कम से कम निर्माण कार्य करना चाहिए।
इस दिशा के निर्दोष रहने पर आध्यात्मिक, मानसिक, एवं आर्थिक संपन्नता देखने को मिलती है। साथ ही वंश की वृद्धि होती है तथा लोग अच्छी वाणी बोलने वाले होते हैं। इस दिशा में शौचालय, सेप्टिक टैंक एवं कूड़े-करकट रखने पर सात्विकता में कमी, वंश वृद्धि में अवरोध, नेत्र, कान, गर्दन एवं वाणी में कष्ट होता है। अतः इस दिशा को ठीक रखना आवश्यक है।
दिशा और देवता
वास्तु सिद्धांत के अनुसार चार प्रमुख दिशाओं के अलावा चार उपदिशाओं अर्थात् आठ दिशाओं के आधार पर पूरे वास्तु की गणना की जाती है। सभी कोणीय दिशाओं पर दोनों दिशाओं का प्रभाव रहता है। अतः वास्तु शास्त्र में प्रत्येक दिशा का अपना अलग महत्व होता है क्योंकि प्रत्येक दिशा पर अलग-अलग देवताओं, ग्रहों एवं विभिन्न दिशाओं से आने वाली ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं का संयुक्त प्रभाव रहता है।
कंपास के द्वारा दिशाओं का निर्धारण
वास्तु में दिशाओं का निर्धारण दिशा सूचक यंत्र के द्वारा भूखंड के मध्य भाग अर्थात् केन्द्र में रखकर की जाती है। दिशा सूचक यंत्र में एक चुंबकीय सुई होती है जो धुरी पर स्थित होती है इस सुई पर एक तरफ लाल निशान होता है जो उत्तरी भाग को सूचित करता है एवं दूसरी तरफ काला निशान होता है जो दक्षिणी दिशा को सूचित करता है।
किसी भी भूखंड के मध्य में जाकर इस चुंबकीय कंपास को हथेली या जमीन के मध्य भाग पर एक मिनट तक स्थिर रखते हैं। चुंबकीय सुई का लाल भाग हमेशा अपने उत्तरी भाग की ओर स्थिर हो जाता है जो स्पष्ट रूप से उत्तर दिशा को दर्शाता है। तदुपरान्त चुंबकीय कंपास के लाल सुई को 0° या 360° पर स्थित करके पूरे दिशाओं की जानकारी प्राप्त हो जाती है।
उत्तर दिशा की तरफ मुँह कर खड़े हो जायें और दोनों हाथ को दार्थी एवं बार्थी तरफ करें। दायें हाथ की तरफ पूर्व की दिशा एवं बायें हाथ की तरफ पश्चिम की दिशा हो जाएगी और आपकी अपनी पीठ की तरफ दक्षिण की दिशा होगी। इस तरह चुंबकीय कंपास के द्वारा सरल तरीके से दिशाओं का निर्धारण किया जा सकता है
Vastu Me Dishaon Ka Mahatva