अर्क विवाह
वर की कुण्डली में मंगल व पापग्रह बली हो ।
कन्या की कुण्डली में पापग्रहों के अभाव से स्त्री हानि की संभावना हो अथवा विवाह संबंध बोलते नाम से तय हो जाय बाद में ज्ञात हो कि वर मंगली है ।
कन्या की कुण्डली नहीं होने से स्त्री हानि की शंका हो द्विपत्नियोग हो तो वर का अर्क विवाह करना चाहिये।
इस विधि में संकल्प में प्रथम विवाह ही बोलना होगा। यद्यपि प्रथम संस्कार का प्रचलन व लेख नहीं है। अगर वर का तृतीय विवाह हो रहा हो तो उसके पहिले अर्क विवाह विधि से वर का विवाह संस्कार करना चाहिये।
तृतीय विवाह से पूर्व शुभ विवाह दिन में, हस्त नक्षत्र के दिन अथवा शनिवार, रविवार को शुभ नक्षत्र योग होने पर अर्क विवाह करना चाहिये ।
हस्त युक्त शनिवार में मृत्यु योग होने से इसका त्याग करे ।
गांव के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा में स्थित फल पुष्प युक्त वाले अर्क के पास जाकर विधि सम्पादन कराये ।
आचार्य दो होने चाहिये प्रथम आचार्य स्वकुल विधि के लिये दूसरा आचार्य कन्या पिता का कार्य संकल्प करने हेतु ।
गोमय से लिप्य करके मंडल एवं स्थण्डिल की रचना करे । वर अर्क के पश्चिम दिशा में आसन लगाकर बैठे, आचमन, प्राणायाम करे पवित्री करे। प्रतिज्ञा संकल्प करे ।
ॐ विष्णुर्विष्णु विष्णुः श्री भगवतो….. एवं गुण विशेषेण विशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ श्रुतिस्मृति पुराणोक्त फलप्राप्ति पूवर्क मम जन्म कुण्डल्यां विदुरादिदोष निवारणार्थे, तृतीय मानुषी विवाह तज्जन्य दोषनिवृत्यर्थं श्री परमेश्वर सूर्यनारायण प्रीतये तृतीयमर्कविवाह (प्रथमर्क विवाह) महं करिष्ये ।
पुनः जल लेकर संकल्प करे
तत्रादौ निर्विघ्नातासिद्धये गणपति पूजनं, स्वस्ति पुण्यावाचन षोड़शमातृका सूर्यादि नवग्रह दिग्पालादि पूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यद्युत्विग्वरणञ्च करिष्ये ।
Ark vivah kyo Krna chahiye, ark vivah ki vidhi

दिग्रक्षण करे, कलशार्चन, गणेश मातृका नवग्रह रुद्रकलश का पूजन करे ब्रह्मा आचार्य का वरण करे ।
नान्दी श्राद्ध – मातृका पूजन समय बाद नान्दी श्राद्ध हेतु द्रव्य दान कराये ।
यथा ॐ पूर्वोक्त शुभ पुण्यतिथौ मम तृतीय (प्रथम) मानुषी विवाहाङ्गत्वेन कर्तव्याभ्युदयिक श्राद्धेइदमग्निदैवतकं हिरण्यं यथा नामगोत्राय ब्राह्मणाय दातुमहमुत्सृजेत् ।
अर्क कन्या दान हेतु आचार्य का वरण
ॐ अद्येत्यादि मम तृतीय (प्रथम मानुषी) विवाह जन्य दोष परिहारार्थे अर्ककन्या प्रादानार्थ एभिर्वरणं द्रव्यैः अमुकगोत्रममुक शर्माणं ब्राह्मणमाचार्यत्वेनाहं वृणे ।
प्रार्थना करे
कन्यापिता यथा सूर्यो देवानाञ्च प्रजापतिः । तथा त्वमर्क दानार्थमाचार्यत्वं कुरु प्रभो ॥
आचार्य कहे – वृतोऽऽस्मीति प्रति वचनं ।
इसके बाद अर्ककन्यापिता (आचार्य) वर का विवाह विधिकी
तरह अर्चन करे। यथा – ॐ साधुभवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तम्।
विष्टर, पाद्य, अर्घ, आचमन, मधुपर्कप्राशनं पुनः आचमन कराये ।
वर अर्क के समीप जाकर प्रार्थना करे
त्रैलोक्यव्यापिन् सप्ताश्व छायया सहितो रवे । तृतीयो (प्रथमो) द्वाहजं दोषं निवारय सुखं कुरु ॥
इसके बाद अर्क के पास में मंडल बनाकर कलश स्थापित करे, रक्त वस्त्र से वेष्टन करे। सुवर्ण की बनायी हुई सूर्य प्रतिमा उस पर स्थापित करे ।
करे । इसके बाद “आकृष्णेन” मंत्र से छाया सहित सूर्य का आवाहन
ॐ भूभुर्वः स्वः छायासहिताय सूर्याय नमः, सूर्यमस्मिन्नर्के छाया आवा. स्था. ।
सहित श्वेत वस्त्र से अर्क का वेष्टन करे । पाद्यादिभिः सम्पूज्य । षोड़शोपचार से पूजन करे, आरति करे। ॐ आपोहिष्ठा. मंत्र से अर्क का अभिषेचन करे ।
इसके बाद वर अर्क की तीन प्रदक्षिणा करे । प्रार्थना करे ।
प्रथम वारम्
मम प्रीतिकरा चेयं मया सृष्टा पुरातनी । अर्कणा ब्रह्मणा सृष्टा अस्माकं परिरक्षतु ॥
द्वितीय प्रदक्षिणा
नमस्ते मङ्गले देवि नमः सवितुरात्मजे । त्राहिमां कृपया देवि पत्नी त्वं मद्गृहागता ॥
तृतीय प्रदक्षिणा
अर्क त्वं ब्रह्मणा सृष्टःसर्वप्राणि हिताय च । वृक्षाणामादिभूत त्वं देवानां प्रीतिवर्द्धनः ॥ तृतीयो (प्रथमो) द्वाहजं दोषं मृत्युञ्चाशु निवारय ॥
इसके बाद पचभूसंस्कार करके अग्नि स्थापन करे वर अर्क के समीप में पूर्व की तरफ मुँह करके बैठे ।
अर्क तथा वर के मध्य अन्तर्पट करे । मङ्गलाष्टक पढ़े ।
आचार्य संकल्प करे –
ॐ पूर्वोक्त गुण विशेषेण विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अस्य वरस्य तृतीयो (प्रथमो) द्वाहजनित सर्वारिष्ट विनाशार्थ तथा च श्री सवितृसूर्यनारायण प्रीतये (ब्रह्म विधिना) अर्क विवाह विधिना अर्क विवाहं करिष्ये ।
वर के हाथों में जल का प्रोक्षण करे- शिवा आपः सन्तु । सन्तु शिवाः आपः ।। सौमनस्यमस्तु । अस्तु सौमनस्यम् ।। अक्षतं चारिष्टञ्चास्तु । अस्त्वक्षतमरिष्टञ्च ॥ गन्धाः पान्तु । सौमङ्गल्यं चास्तु ।। अक्षताः पान्तु । आयुष्यमस्तु ॥ पुष्पाणिपान्तु । सौश्रियमस्तु।
भूमि पर जल छोड़े – तृतीयो (प्रथमो) द्वाहजन्य दोष परिहारोऽस्तु ।
ततोवरस्य गोत्रोच्चारपूर्वकं दान सङ्कल्प
ॐ अद्यामुकमासेऽमुकतिथौ अमुकवासरादि संयुतायां शुभवेलायां अमुक गोत्रस्य अमुक प्रवरान्वितस्य अमुक वेदशाखाऽध्यायिनः अमुक शर्मणः प्रपौत्राय । अमुक गोत्रस्यामुक प्रवरास्यामुक शर्मणः पौत्राय। अमुक गोत्रस्य अमुक प्रवरान्वितस्य अमुक शर्मणः पुत्राय । अमुकनाम्ने वराय। काश्यपगोत्रस्य त्रिप्रवरस्य आदित्यस्य प्रपौत्रीम् । काश्यप गोत्रस्य त्रिप्रवरान्वितस्य सवितुः पौत्रीम् । काश्यपगोत्रस्य त्रिप्रवरान्वितस्य सूर्यस्य पुत्रीम्। आर्कीनाम्नीं कन्यां सूर्यदैवत्यां भार्यात्वेन तुभ्यमहं समप्रददे ।
इस संकल्प से वर के हस्त में जल छोड़े । स्वस्ति सूक्त पढ़कर ब्राह्मण वर को आशीष प्रदान करे ।
पुनः संकल्प करे
ॐ अद्य कृतैतदर्क कन्या दान प्रतिष्ठार्थमिदं सुवर्णमग्नि दैवतं अमुक गोत्राय अमुकशर्मणे वराय तुम्यमहं संप्रददे ।
इस प्रकार सुवर्ण दक्षिणा देवे । वर कहे ॐ स्वस्ति ।
इसके बाद वर अर्कवृक्ष पर तीन बार पुष्पाक्षताञ्जलि प्रदान करें। यथा-
ॐ यज्ञो मे कामः समृद्धयताम् । ॐ धर्मो मे कामः समृद्धचताम् । ॐ यशो मे कामः समृद्धचताम् ।।
यद्यपि संकल्प में ब्रह्मविधि विवाह का उल्लेख है परन्तु अर्क विवाह पद्धति में राष्ट्रभृत होम, जया होम, सप्तपदी का लेख नहीं है।
यहां सूर्य अरुण संवाद में विष्णु विवाह या कुंभ विवाह के लिये विवाह विधान के पश्चात जिन १० मंत्रों से सूत्र वेष्टन करने को कहा है वही विधि आगे लिखि है।) वर तथा अर्ककन्या का अञ्चल ग्रंथि बंधन करे ।
पांच या दशतन्तु का सूत्र लेवें, गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करें, कुंकुमादि लगाये ।
गायत्री मंत्र व निम्न दश मंत्रों को पढ़ते हुये उस सूत्र से अर्कवृक्ष को ५ बार वेष्टन करे। (कहीं दश बार वेष्टन का लिखा है)
ॐ परित्वागिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः ।
वृद्धायु मनुवृद्धायो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः ॥१॥ इन्द्रस्यूरसींद्रस्य ध्रुवोसि । ऐन्द्रमसि वैश्वदेवमसि ॥२॥
विभुरसि प्रवाहणो वह्निरसि हव्यवाहनः ।
श्वात्रोऽसि प्रचेतास्तुथोऽसि प्रविश्ववेदाः ॥३॥
उशिगसि कविङ्घारिरसि बम्भारिरवस्युरसि दुवस्वान् शुन्ध्यूरसि मार्जालीयः सम्राडसि कृशानुः परिषद्योऽसि पवमानोनभोऽसि प्रतक्वा मुष्टोऽसि हव्यसूदन ऋतधामासि स्वर्योतिः ॥४॥
समुद्रोऽसि विश्वव्यचा अजोऽस्येकपादहिरसि बुध्न्यो वागस्यैन्द्रमसि सदोऽस्मृतस्य द्वारो मा मा संताप्तमध्वना मध्वपते प्रमातिर स्वस्ति मेऽस्मिन्पथि देवयाने भूयात् ॥५॥
मित्रस्य मा चक्षुषेक्षध्वमग्नयः सगराः सगराःस्थ सगरेण नाम्ना रौद्रेणानीकेन पातमाग्नयः । पितृतमाग्नये गोपायत मा नमो वोऽस्तु मा माहि ठं सिष्ठ ॥६॥
ज्योतिरसि विश्वरूपं विश्वेषां देवानां समित् । त्व ठं सोमतनूकृद्ध्यो द्वेषेभ्योऽन्यकृतेभ्य उरुयन्तासि वरुथ ठं स्वाहा जुषाणो अप्तुराजस्य वेतु स्वाहा ॥७॥
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥८॥
अयं नो अग्निर्वरिवस्कृणोत्वयं मृधः पुर एतु प्रभिन्दन्। अयं वाजाञ्जयतु वाजसाता वय ठं शत्रूञ्जयतु जर्हषाण स्वाहा ॥९॥
उरू विष्णोः विक्रमस्वोरु क्षयात् नस्कृधि । धृतं धृतयोने दिवः प्रप्रयज्ञपतिं तिरः स्वाहा ॥१०॥
इसके बाद निम्न मंत्र से पुनः पञ्चगुणी सूत्र अर्क के दक्षिण कंधे पर रखें ।
Ark vivah kyo Krna chahiye, ark vivah ki vidhi
ॐ वृहस्सामक्षत्रभृद् वृद्धवृण्यं त्रिष्टुभोजः शुभितमुग्रवीरम् । इन्द्रस्तोमेन पंचदशेन मध्यविदं वातेन सगरेण रक्ष ।।
निम्न मंत्र से सूत्र से अर्क के रक्षासूत्र बांधे ।
ॐ यदा बद्दनन्दाक्षायणा हिरण्य ठं शतानीकाय समुनस्य माना तन्नमऽ आबद्धध्नामि शत शारदायायुष्माञ्जरदष्टि र्यथासम् ॥
करे । इसके बाद अर्क के पूर्वादि अष्ट दिशाओं में आठ कुंभ स्थापति करे ।।
वस्त्र, त्रिसूत्री से वेष्टन करे, हरिद्रा कुंकुम से चर्चित करे । हरिद्रा सप्तधान्य निक्षेप करे तथा कलशों में विष्णु का आवाहन करे ।
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदं समूढमस्य पाठ सुरे स्वाहा ॥
विष्णु का षोड़शोपचार पूजन करके प्रार्थना करें ।
विश्व व्यापिन नमस्तेऽस्तु भक्तप्रिय जनार्दन । तुरीयस्य (अस्य) विवाहस्य अधिकारं प्रयच्छ मे ॥
तत्पश्चात् अर्क की उत्तर दिशा में स्थाण्डिल बनाकर पंचभूसंस्कार पूर्वक वरदनाम्नी अग्नि का स्थापन करें ।
हवन विधि प्रारम्भ करे ।
संकल्प करे –
अद्येह अर्कविवाहकर्मणाहे यक्ष्ये तत्र प्रजापति इन्द्रं अग्निं सोमं बृहस्पतिं अग्नि वायुं सूर्यं प्रजापतिं चाज्येनाहं यक्ष्ये ।
(खड़े होकर) ॐ समिधोऽभ्याधाय स्वाहा (इत्यारम्भ)। अन्वारब्ध करे ।
ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये ( इति मनसा ||
ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदमिन्द्राय (इत्याधारी) |
ॐ अग्नये स्वाहा । इदमग्नये ॥
ॐ सोमाय स्वाहा । इदं सोमाय (इत्याज्यभागौ) ।।
अन्वारब्ध हटा लेवें । योजक नाम की अग्नि का पूजन करें। तत्पश्चात हवन करे ।
ॐ सङ्गीभिराङ्गिरसो नक्षमाणो भग इवेदर्यमणं निनाय । जने मित्रो न दम्पति अनक्ति बृहस्पतेय वाजयाशूरिवाजौ स्वाहा।।
इदं बृहस्पतये न मम ॥
ॐ यस्मै त्वा काम कामाय वयं सम्राडचजामहे । तमस्मभ्यं कामं दत्वाथेदं त्वं घृतं पिब स्वाहा ।। (इदमग्नेय)
ॐ भूः स्वाहा । इदमग्नये ॥ ॐ भुवः स्वाहा । इदं वायवे ॥ ॐ स्वः स्वाहा । इदं सूर्याय ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा । इदं प्रजापतये ॥
इसके बाद प्राजापतये इत्यादि नव आहुति प्रदान करे। स्विष्टकृद्धोहम करे। संस्त्रवप्राशन ब्रह्मग्रंथि विमोक पूर्णपात्र दानादि करे । दशतंतु निष्कासन करे ।
अर्क की प्रदक्षिणा करके प्रार्थना करे ।
मयाकृतमिदं कर्म स्थावरेषु जरायुणा । क्षन्तुमर्हसि अर्कापत्यानि मे देहि तत्सर्वं ।।
आचार्य शांतिसूक्त का पाठ करे, देव विसर्जन करे । सूर्य मूर्ति आचार्य को प्रदान करे गोदान अष्टब्राह्मण भोजन का संकल्प काये।
वस्त्र अलंकार आचार्य को देवे । उसी दिन या पांचवे दिन कलशों के जल का विसर्जन करे, सूर्य को अर्घ देवें । कंकण विमोचन मो
-जल लेकर कहे – अनेन यथाज्ञानेन कृतेनार्कविवाह कर्मणा। श्री परमेश्वरस्वरूपी श्री सूर्यनारायणः प्रीयतां न मम । अनेन कर्मणा तृतीय (प्रथम स्त्री हानि) मानुषी विवाह जन्य दोष परिहारोऽस्तु ।
क्षमा प्रार्थना करे ।
(इति अर्क विवाहः)