राहु का कुंडली के बारह भावों पर अलग अलग प्रभाव

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राहु का कुंडली के बारह भावों पर अलग अलग प्रभाव

द्वादशभावस्थ राहु फल

रोगी सदा देवरिपौ तनुस्थे कुले च मुख्यो बहुजल्पशीलः । रक्तेक्षणः क्रोधपरः कुकर्मरतः सदा साहसकर्मदक्षः ॥१॥

राहु यदि लग्न में हो तो जातक रोगी, अपने कुल में मुख्य, व्यर्थ बहुत बोलनेवाला, लालनेत्र, क्रोधी, कुकर्मी और साहसी होता है।।१।।

राहौ धनस्थे कृतचौरवृत्तिः सदावलिप्तो बहुदुःखभागी । मत्स्येन मांसेन सदा धनी च सदा वसेन्नीचगृहे मनुष्यः ।॥२॥

द्वितीय भाव में राहु हो तो चोरी करनेवाला, अभिमानी, दुःख का भागी, मत्स्य- मांस से धनोपार्जन करनेवाला तथा नीच जनों का आश्रित होकर रहता है॥२॥

भ्रातुर्विनाशं प्रददाति राहुस्तृतीयभावे मनुजस्य गेहे । सौख्यं धनं पुत्रकलत्रमित्रं ददाति तुङ्गो गजवाजिभृत्यान् ॥३॥

तृतीय भाव में राहु हो तो उसके भाई के लिये अनिष्ट होता है। परन्तु घर में सब प्रकार के सुख, पुत्र, स्त्री, मित्र होते हैं। यदि उच्च राहु हो तो हाथी- घोड़े आदि सवारी देनेवाला होता है॥३॥

राहौ चतुर्थे धनबन्धुहीनो ग्रामैकदेशे वसति प्रकृष्टः । नीचानुरक्तः पिशुनश्च पापी पुत्रैकभागी कृशयोषिदाढ्यः ॥४
चतुर्थ भाव में राह हो तो धन और बन्धुओं से हीन, गाँव के एक बगल में बसने बाल, चतुर्थ धामी, चुगुलखोर, पापी, एक पुत्र वाला और दुर्बल सी चाला होता है। बा राहुः सुतस्थः शशिनानुगो हि पुत्रस्य हर्ता कुपितः सदैव ।

गेहान्तरे सोऽपि सुतैकमात्रं दत्ते प्रमाणं मलिनं कुचैलम् ॥५॥ यदि राहु चन्द्रमा के साथ पञ्चम भाव में हो तो पुत्र का नाशक तथा सदा क्रोषयुत

रहता है। यदि चन्द्रमा के साथ नहीं हो तो एक पुत्र, मलिन चेष्टा वाला होता है।।।। घष्ठे स्थितः शत्रुविनाशकारी ददाति पुत्रं च धनानि भोगान् । स्वर्भानुरुच्चेरखिलाननर्थान् हन्त्यन्ययोषिद्गमनं करोति ।॥६॥

षष्ठ भाव में राहु हो तो शत्रु को नाश करनेवाला, पुत्र, धन और सुख भोग देनेवाला होता है। यदि उच्च स्थित राहु हो तो सब अनर्थ (अनिष्ट) को निवारण करनेवाला, पर-स्त्रियों से प्रेम करनेवाला होता है।॥६॥

जायास्थराहुर्धनहानिकर्ती ददाति नारी विविधांश्च भोगान् । पापानुरक्तां कुटिलां कुशीलां ददाति शेषैर्बहुभिर्युतश्च ॥७॥

सप्तम स्थान में राहु हो तो अधिक धन खर्च करनेवाली स्त्री तथा अनेक प्रकार के भोग लाभ करनेवाला होता है। यदि अनेक ग्रहों से युक्त राहु हो तो उसकी स्त्री पापिनी, कुटिला और दुष्टस्वभाववाली होती है।॥७॥

राहुः सदा चाऽष्टममन्दिरस्थो रोगान्वितं पापरतं प्रगल्भम् । चौरं कृशं कापुरुषं धनाढ्यं मायामतीतं पुरुषं करोति ॥८॥

अष्टम भाव में राहु हो तो वह मनुष्य रोगी, पापी, ढीठ, चोर, दुर्बल, कायर, धनी, और मायाजाल में पारङ्गत होता है।॥८॥

धर्मस्थिते चन्द्ररिपौ मनुष्यश्चाण्डालकर्मा पिशुनः कुचैलः । ज्ञातिप्रमोदे निरतश्च दीनः कुलाद्भीतिमुपैति नित्यम् ॥९॥

नवम स्थान में राहु हो तो निन्द्यकर्म करने वाला, चुगुलखोर, मलिन वस्त्रधारी, अपने कुटुम्बियों को प्रसन्न करने वाला, धनहीन और शत्रुओं के भय से युक्त होता है।॥९॥

कामातुरः कर्मगते च राहौ परार्थलोभी मुखरश्च दीनः । म्लानो विरक्तः सुखवर्जितश्च विहारशीलश्चपलोऽतिदुष्टः ॥१०॥

दशम स्थान में राहु हो तो कामी, परधन का लोभी, व्यर्थ बात बोलने वाला, चञ्चल और दुष्ट होता है।॥१०॥

आयस्थिते सोमरिपौ मनुष्यो दान्तो भवेन्नीलवपुः सुमूर्तिः ।

वाचाल्ययुक्तः परदेशवासी शास्त्रार्थबेत्ता चपलो विलज्जः ॥११॥एकादश स्थान में राहु होने से वह पुरुष जितेन्द्रिय, श्यामवर्ण, सुन्दर रूप, वक्ता (वकील, कथावाचक, व्याख्याता, प्राध्यापक), परदेशवासी, चाल और निर्लज्ज, शास्त्रतत्त्व का ज्ञाता होता है।॥११॥

व्यये स्थिते सोमरिपौ मनुष्यो धर्मार्थहीनो बहुदुःखतप्तः । कात्ताविमुक्तश्च विदेशवासी सुखैश्च हीनः कुनखी कुवेषः ॥१२॥

द्वादश भाव में राहु रहने से वह मनुष्य धर्म और धन से वर्जित, अनेक दुःख से पीड़ित, स्त्री हीन, विदेशवासी, सुखहीन, खराब नख वाला, और कुरूप होता है।।१२

श्री रस्तू शुभम्

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