बृहस्पति ग्रह का कुंडली पर शुभ अशुभ प्रभाव

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बृहस्पति ग्रह का कुंडली पर शुभ अशुभ प्रभाव

विविधवस्त्रविपूर्णकलेवरः कनकरत्वधना है प्रियदर्शनः । वित्तिविंशजनस्य च वल्लभो भवति देवगुरौ तनुगे नरः ॥१॥

तनु भाव में गुरु हो तो वह मनुष्य नाना प्रकार के वस्त्र, सुवर्ण, रलधन से पूर्ण, सुन्दर स्वरूप वाला, राजा तथा देव, गुरु का प्रिय होता है।

सुरगुरौ धनमन्दिरसंश्रिते प्रमुदितो रुचिरप्रमदापतिः । भवति मानधनो बहुमौक्तिकागतवसुर्भविता प्रसवाह्निके ॥२॥

गुरु यदि द्वितीय भाव में हो तो प्रसन्न चित्त, उत्तम स्त्री का पति, मा तथा मोती के व्यापार से अधिक धन वाला होता है।।२।।

सहजमन्दिरगे च बृहस्पतौ भवति बन्धुगतार्थसमन्वितः । कृपणतामपि गच्छति कुत्सिते धनयुतोऽपि सदा धनहानिमान् ॥३॥

तृतीय भाव में गुरु हो तो बन्धुओं के उपकारार्थ धनोपार्जन करनेवा किसी अनुचित कार्य में धन नहीं खर्च करता है, परञ्च धन का लाभ के खर्च बराबर करनेवाला होता है।।३।।

सम्माननानाधनवाहनाद्यैः सञ्जातहर्षः पुरुषः सदैव । नृपानुकम्पासमुपात्तसम्पद्दम्भोलिभृन्मन्त्रिणि भूतलस्थे ॥४॥

चतुर्थ भाव में बृहस्पति हो तो लोक में मान, धन, वाहन आदि से सम्पन्न, प्रसन्न, राजा के अनुग्रह से धनलाभ करनेवाला और हीरा- जवाहरात वाला होता है।।

सुहृदयश्च सुहृज्जनवन्दितः सुरगुरौ सुतगेहगते नरः । विपुलशास्त्रमतिः सुखभाजनं भवति सर्वजनप्रियदर्शनः ॥५

पञ्चम भाव में गुरु हो तो सहृदय, मित्रों से पूजित, शास्त्रों का ज्ञाता, सुखी और सबका प्रिय और सुरूपवान् होता है।॥५॥

करिहयैश्च कृशाङ्गतनुर्भवेज्जयति शत्रुकुलं रिपुगे गुरौ । रिपुगृहे यदि वक्रगते गुरौ रिपुकुलाद्भयमातनुते विभुः ॥६॥

षष्ठ भाव में गुरु हो तो कृश शरीर होता हुआ भी हाथी-घोड़े के द्वारा शत्रुओं को जीतने वाला होता है। यदि गुरु शत्रुगृह में हो या वक्र हो तो शत्रु का भय होता है।॥६॥

युवतिमन्दिरगे सुरयाजके नयति भूपतितुल्यसुखं जनः । अमृतराशिसमानवचः सुधीर्भवति चारुवपुः प्रियदर्शनः ॥७॥

सप्तम भाव में बृहस्पति हो तो राजा के समान सुखी, प्रिय वक्ता, बुद्धिमान्, सुन्दर शरीर और दर्शनीय पुरुष होता है।॥७॥

विमलतीर्थकरश्च बृहिस्पतौ निधनगे न मनःस्थिरता यदा । धनकलत्रविहीनकृशः सदा भवति योगपथे निरतः परम् ॥८॥

यदि अष्टम भाव में गुरु हो तो चञ्चल चित्तवाला, उत्कृष्ट तीर्थ करनेवाला, धन और स्त्री से रहित, कृशदेह और योग-क्रिया में तत्पर रहता है।।८।।

सुरगुरौ नवमे मनुजोत्तमो भवति भूपतितुल्यधनी शुचिः । कृपणबुद्धिरतः कृपणः सुखी बहुधनप्रमदाजनवल्लभः ॥९॥

नवम भाव में बृहस्पति हो तो जनों में श्रेष्ठ, राजातुल्य धनी, पवित्र हृदय, कृपण, सुखी तथा स्त्रियों का प्रिय होता है।॥९॥

दशम भाव में बृहस्पति हो तो घोड़े आदि सवारी तथा रत्नादि से पूर्ण घरवाला, नीति और गुण से पण्डितों का मान्य तथा परधन और परस्त्री के लोभ से हीन धर्मात्मा होता है।॥१०॥

व्रजति भूमिपतेः समतां धनैर्निजकुलस्य विकारकरः सदा । सकलधर्मरतोऽर्थसमन्वितो भवति चायगते सुरयाजके ॥११॥

एकादश भाव में बृहस्पति हो तो धन में राजा के तुल्य, अपने कुल का उपकार करनेवाला, धर्म में रत, धनों से युक्त होता है।॥११॥

शिशुदशाभवने हृदि रोगवानुचितदानपराङ्‌मुख एव च । कुलघनेन युतः कुलदाम्भिको भवति पापगृहे च बृहस्पतौ ॥१२॥

द्वादश भाव में गुरु हो तो बाल्यावस्था में हृदय रोगी, उचित दान करने में असमर्थ होता है। यदि पापग्रह की राशि में हो तो कुलोचित्त सम्पत्ति वाला एवं कुलाभिमानी (दम्भ में खर्च करनेवाला) दम्भी होता है॥१२॥

श्री रस्तू शुभम्!

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