ब्रह्मचर्य क्या है ?
ब्रह्मचर्य क्या है ? जब तक इसे ठीक-ठीक न समझ लिया जाये तब तक इससे पूर्ण लाभ उठाना और ब्रह्मचर्य की रक्षा करना असम्भव है।
‘ब्रह्मचर्य’ यह दो शब्दों से बना है।
१. ब्रह्म-इसका अर्थ है-ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्यादि ।
२. चर्य-इसका अर्थ है-चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षणादि ।
इस प्रकार ब्रह्मचर्य के-
१. ईश्वर-चिन्तन, २. वेदाध्ययन, ३. ज्ञान (विद्या) उपार्जन,
४. वीर्य-रक्षण आदि अर्थ हुए।
इन सब का परस्पर घनिष्ठ (गहरा) सम्बन्ध है। वैसे ब्रह्मचर्य का नाम लेते ही लोगों के हृदय में वीर्यरक्षा क भाव उठता है। इसी को ही लोग ब्रह्मचर्य समझते हैं, किन्तु एक ही साथ ईश्वरचिन्तन करना, वेद पढ़ना, ज्ञान और विद्या की प्राप्ति करना त्था वीर्यरक्षा करने का नाम ब्रह्मचर्य है। जो मनुष्य वीर्य की रक्षा नहीं करता और विषय-भोगों में फंसा रहता है, वह वेद का अध्ययन, विद्योपार्जन और ईश्वर-चिन्तन कभी नहीं कर सकता। शरीर, मन और आत्मा को पूर्ण शक्तिशाली और बलवान् बनाना और किसी प्रकार इनकी शक्तियों का ह्रास और नाश न
होने देना ही ब्रह्मचर्य है। इन तीनों में से किसी एक की भी शक्ति का नाश हुआ तो वह ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण नहीं अधूरा है। अतः शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों को पूर्ण उन्नत और विकसित करो, यह कैसे होगा ? ब्रह्मचर्य पालन से। ब्रह्मचर्य का स्थूल (मोटा) रूप वीर्यरक्षा है।
ब्रह्मचर्य क्या हे ब्रह्मचर्य की शक्ति को जानो

वीर्य क्या है ?
पहिले इसे समझलें, फिर इसकी रक्षा का प्रश्न होगा। जो भोजन हम प्रतिदिन करते हैं उसका पेट में जाकर पहले रस बनता है जैसे पशुओं के शरीर में दूध बनता है वैसे ही भोजन का असली सार शरीर में रहता है। उसी से रसादि धातुएं बनती हैं। भोजन का जो स्थूल (खराब) भाग होता है, वह मल मूत्रादि गन्दगी के रूप में शरीर से निकलता रहता है।
रस फिर से जठराग्नि में पकने के लिए जाता है। इससे पककर रक्त बनता है। इसी प्रकार क्रमशः एक के बाद एक, रक्त से मांस (गोश्त), मांस से मेद (चर्बी), मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से वीर्य सातवीं धातु बनती है। प्रत्येक धातु के बनने में पांच दिन से अधिक समय लगता है। वीर्य के तैयार करने में शरीर के यन्त्रों (मशीन) को विशेष परिश्रम करना पड़ता है। इसमें तीस दिन से अधिक समय लगता है।
तब कहीं यह मनुष्य का बीज (वीर्य) तैयार होता है। १०० बूंद रक्त (खून) से एक बूंद वीर्य बनता है। लगभग जो भोजन एक मन की मात्रा में किया जाता है उससे एक सेर रक्त (लहू) बनता है। एक सेर रक्त से एक तोला से कम वीर्य तैयार होता है। यदि एक तोला वीर्य शरीर से निकल जाय तो एक सेर खून अर्थात् एक मन भोजन का सार नष्ट होगया। एक बार की कुचेष्टा वा व्यभिचार से जो वीर्य-पात (नष्ट) होता है, वह एक तोले से अधिक ही होता है। एक बार के वीर्य से दस दिन की आयु घटती है।
अतः हमारे पूर्वज वीर्यरक्षा में जी-जान से लगे रहते थे। यही तो बात है कि पुराने समय में हमारे देश में १०० वर्ष से पूर्व कोई मरता न था। अकाल वा बालमृत्यु कोई जानता भी न था। यह तो शरीर का बल है। वीर्य की अग्नि मृत्यु के पंखों (पैरों) को भी जला डालती है। जिसका शरीर वीर्य से भरा है, उसे मृत्यु का भय कैसा ? अतः वीर्य की रक्षा करो और भीष्म और दयानन्द के समान मृत्युंजय (मृत्यु को जीतनेवाला) बनो।
ब्रह्मचर्य क्या हे ब्रह्मचर्य की शक्ति को जानो
वीर्यरक्षा का प्रताप
१७६ वर्ष का ब्रह्मचारी भीष्म कुरुक्षेत्र के मैदान में वह घमासान युद्ध मचाता है कि प्रतिदिन दस-दस हजार सैनिकों को वीरगति प्राप्त कराता है। ऐसी अवस्था देख सारा पाण्डव-दल घबराता है। पाण्डव योगेश्वर कृष्ण को नेता बना भीष्म की शरण में आते हैं। उसी से अपनी विजय का उपाय गिड़गिड़ाकर पूछते हैं। भीष्म की उदारता और धर्मप्रेम से पाण्डवों को उनके मरने का ढंग और रीति मिल जाती है।
शिखण्डी को आगे खड़ा कके अर्जुन निहत्थे भीष्म पर तीर बरसाता है और अपनी वीरता के जौहर दिखाता है। भीष्म का शरीर छलनी हो जाता है। वे शरशय्या पर ही लेट जाते हैं। तीरों से बिंधे प्रतिदिन रणभूमि में ही पुत्र-पौत्रों को उपदेशामृत का पान कराते हैं। मृत्यु बार-बार आती है, किन्तु ब्रह्मचारी से डरकर उल्टे पैरों भाग जाती है, ब्रह्मचारी आज्ञा देता है, अभी शीतकाल है, सूर्य दक्षिणायन में है, लगभग तीन मास पीछे ग्रीष्मकाल (गर्मी) में सूर्य उत्तरायण में आयेगा तभी यह ब्रह्मचारी शरीर को छोड़कर स्वर्गधाम को जायेगा। हुआ भी यही, जब तीन मास पीछे ग्रीष्म ऋतु आई, तभी उन्होंने स्वेच्छा से शरीर छोड़ा और मोक्षपद पाया। आज भी सारे संसार के लोग श्रद्धा से उनके गुण गाते हैं। उनके सन्तान न थी, फिर भी ब्रह्मचर्य के ही तप के कारण सारे जगत् के पितामह (दादा) कहलाते हैं।
सच्चे ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द का आदर्श जीवन भी हमारे सन्मुख है। वह आजीवन ब्रह्मचारी रहे। भयंकर से भयंकर कष्ट हंसते-हंसते सहे। नीच धूर्तों ने भोजन आदि में उन्हें सोलह बार विष खिलाया। धन्य-धन्य ब्रह्मचारी, तेरा तो विष भी कुछ न बिगाड़ सका। तूने हलाहल को भी निष्प्राण कर दिखाया।
जब अन्तिम बार जोधपुर में नीच जगन्नाथ व धोलमिश्र ने कांच वा विष मिलाकर ऋषि को दूध पिलाया तो वह फूट-फूट कर शरीर से निकलने लगा। उस अवस्था को देखकर डाक्टर सूरजमल भी घबराये और चिल्ला उठे कि ऐसा भयंकर विष दिया गया है कि किसी अन्य पुरुष को दिया जाता तो पांच मिनट में मर जाता। ऋषिवर ! आप तो शरीर की चिन्ता से ऊपर उठ चुके थे, न आपको जीने की इच्छा थी, न मरने का भय। अपने विष देनेवाले घातक को बुलाया।
उसका पाप उसको समझाया। हे दया के भण्डार ! तूने उसे अपने पास से थैली देकर सपरिवार नेपाल पहुंचाया। धन्य हो ब्रह्मचारी ! तूने मौत भी उधारी नहीं ली। आपने विष देनेवाले का नाम और भेद भी किसी को नहीं बतलाया। इतना ही नहीं, जोधपुर महाराज के नीच धूर्त डाक्टर अलीमर्दानखां ने आपको दवाई के रूप में प्रतिदिन जहर खिलाया।
प्रतिदिन सौ-सौ दस्त आये। आंत कट-कट कर गिरने लगीं, फिर भी आपका मन नहीं घबराया। मृत्यु ने बार-बार आना चाहा तो आपने उसे ठुकराकर एक मास तक दूर ही बैठाया। अजमेर की विशाल नगरी में भक्तजनों ने आपको पहुंचाया। दीपमाला आ पहुंची।
सबने अपने दीपक जलाये। आपने अपना शरीररूपी दीपक बुझा दिया, सब भक्तजन रोये और चिल्लाये। आपने अन्तिम समय में योगाभ्यास और प्राणायाम किया।
ईश्वर स्तुति की और मन्द-स्वर से वेदमन्त्रों का गान किया, लोग रोये, किन्तु तू हंसा ! ‘ईश्वर ! तूने अच्छी लीला की’ । तेरी इच्छा पूर्ण हो, तेरी इच्छा पूर्ण हो, तेरी इच्छा पूर्ण हो’ यह कहकर नश्वर संसार से प्रयाण किया। तूने इस मरी हुईआर्यजाति को जीवन दिया और इसकी डूबती हुई नय्या को पार लगाया। तेरे इस मृत्यु के दृश्य ने गुरुदत्त को आस्तिक और ईश्वर का सच्चा भक्त बनाया। ब्रह्मचर्य के तप से ही परमपद की प्राप्ति की और मृत्युञ्जय कहलाया। प्रिययुवको !
तुम भी वीर्य की रक्षा करो, ऋषि के समान अमरपद पाओगे और मृत्युञ्जय कहलाओगे।
ब्रह्मचर्य क्या हे ब्रह्मचर्य की शक्ति को जानो
सावधान !
यह वीर्य शरीर में नौ दस साल की आयु में उत्पन्न होना आरम्भहोता है। सोलह वर्ष की आयु में जब वृद्धि अवस्था आरम्भ होती है तब खूब बढ़ता है।
जब मनुष्य २५ वर्ष का होता है, तब युवावस्था (जवानी) आरम्भ होती है। तब तक वीर्य तथा अन्य सब धातुएं बढ़ती हैं। यह समय मनुष्य के जीवन में बड़ा भयानक है। कुसंग के कारण काम-देवता भी इसी समय मुंह दिखाता है।
जो बालक मन के पीछे चलकर कामवासना वा विषय भोग में फंस जाते हैं वे अपना सर्वनाश करके सारी आयु रोते और पछताते हैं। उनका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। दुनिया के सभी रोग उन्हें आ घेरते हैं, उनकी आायु घट जाती है। इस आयु में वीर्य कच्चा होता है। यह इयलिये उत्पन्न नहीं होता कि इससे विषय भोग की इच्छा पूरी की जाये।
यह इसलिये उत्पन्न होता है कि इसे फिर से खूब व्यायाम. करके शरीर में पचाया जाये और बल और शक्ति का रूप धारण करे, और शरीर का अंग बन जाये। इस वृद्धि की अवस्था में “१६ वर्ष की आयु से पूर्व कन्या और २५ वर्ष से पूर्व की आयु का जो लड़का वीर्यादि धातुओं का नाश करेगा, वह कुल्हाड़े से काटे वृक्ष और डण्डे से फूटे घड़े के समान अपने सर्वस्व का नाश करके पश्चात्ताप करेगा। पुनः उसके हाथ में सुधार कुछ भी नहीं रहेगा।” उसे स्वर्ग समान युवावस्था (जवानी) के दर्शन भी नहीं होंगे।
जवान होने से पहले ही बूढ़ा होजायेगा। जीवन में वसन्त आने से पूर्व पतझड़ आजायेगा। हाय ! कितने दुःख की बात है कि सारे जीवन में सच्चा ब्रह्मचारी बनने के लिए केवल एक बार, एक बार, निश्चय से एक बार ही अवसर मिलता है, यह भाग्यहीन बालक उसे भी खो देता है।
ब्रह्मचर्य क्या हे ब्रह्मचर्य की शक्ति को जानो
यह तो हो गई ब्रह्मचर्य को समझने की बात अब ब्रह्मचर्य रक्षा कैसे करे उसके लिए एक सुगम तरीका हे जिसे में अगली पोस्ट में लिख रहा हु उस तरीके से किए गए कृत्यों द्वारा आसानी से ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता हे –
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