शास्त्रों विभिन्न प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने के विविध कारण बताये गये हैं। प्रायः तीन प्रकार से रोगोत्पन्न कारणों का वर्गीकरण किया जाता हैं-
(१) कर्मों से उत्पन्न होने वाले रोग।
(२) दोषों (वात्त, पित्त कफ) से उत्पन्न होने वाले रोग ।
(३) कर्म और दोष दोनों के संयोग से उत्पन्न होने वाले रोग।
जो रोग औषधि उपचार से नहीं ठीक होते हैं और धर्माचरण (दान-पुण्य) के द्वारा ठीक हो जाते हैं उन्हें कर्मज रोग कहते हैं? जो रोग बिना प्रायश्चित्यादि कर्म किये औषधि सेवन से ठीक हो जाते हैं उन्हें दोषज रोग कहते हैं। सर्व प्रकार से हानि करने वाले पुण्य का क्षय करने वाले और औषधियों का भी क्षय करने वाले जो रोग हैं, उन्हें कर्म दोषज रोग कहते हैं।
पूर्व जन्म के किये हुए पाप नरक के क्षय होने पर व्याधि के रूप में कष्ट देते है जिन्हें कृच्छ्र चान्द्रायणादि व्रत के द्वारा इनकी शुद्धि होती है। पूर्व जन्म के किये हुए पाप व्याधि के रूप में कष्ट देते हैं। उनकी शान्ति जप, होम, देवार्चन, औषधि सेवन आदि के द्वारा होती है। रोग का कारण यदि पाप व्याधि है तो औषधि कारगर नहीं होती। ऐसे असाध्य रोगों के शमन के लिए प्रायश्चित किया जाना चाहिए।
सब प्रकार के रोगों के निवारण के लिए जप कार्य विशेष रूप से लाभदायी होता है। मृत्युंजय मन्त्र और रुद्र जप (रुद्राष्टाध्यी) करके दशांश हवन करना चाहिए। आगमोक्त विधानों से रोग जल्दी ठीक होते हैं। इसके अन्तर्गत सभी रोगों के शमन के लिए अभिषेक करना चाहिए। सहस्र कलशों से विष्णु व शिव को स्नान कराना चाहिए। देवताओं का अर्चन कर ब्राह्मणों को मिष्टान्न भोजन कराना चाहिए। उनको दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद लेकर रोग से निश्चित ही मुक्ति मिलती है।

सभी प्रकार के रोगों को मिटाने के उपाय
सर्व रोग विनाशाय जपः कार्यों विशेषतः ।
मृत्युंजयस्य रुद्रस्य होमं कुर्या द्दशांशतः ॥ आगमोक्त विधानेन रोगनाशो भवेद्ध्रुवम् ।
सर्वरोगोपशान्त्यर्थं अभिषेकं समाचरेत् ।।
सहस्र कलशैः स्नानं विष्णोर्वा शंकरस्य च । देवमभ्यर्च्य विप्रेभ्यो दद्यान्मिष्टान्न भोजनम् ।।
तेभ्यश्च दक्षिणां दत्त्वा रोगेभ्यो मुच्यते ध्रुवम् ।
कार्यः षडंग रुद्रस्य जपो वा रोग शान्तये ।।
महारुद्रविधानेनासाध्यो रोगोऽपि शाम्यति ।
रुद्राध्याय का षडंग जप भी रोग शान्ति में सहायक होता है। महारुद्र के विधान से असाध्य रोग भी साध्य हो जाते हैं। अपामार्जन संज्ञक माला मन्त्र से मार्जन करने पर भी लाभ होता है। इस मार्जन के प्रभाव से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं करना चाहिए। रोगी को भगवान विष्णु के तीन नाम अच्युत अनन्त गोविन्द का सर्वरोग निवारण के लिए निरन्तर जप करना चाहिए। सभी ज्ञात रोगों में पायस (खीर) मुद्द्या, शर्करा, घृत से युक्त देनी चाहिए। प्रतिकूल ग्रहों का जप, हवन तथा पूजन करना चाहिए। उनके दोष का विनाश करने के लिए उनकी प्रिय वस्तुओं का यथाविधि दानकरना चाहिए। प्रत्येक बीमारियों का जो दान, हवन और प्रायश्चित्त निश्चित किया गया है, उसको सम्पन्न करके चिकित्सा आरम्भ करना चाहिए। सर्वरोगों के शमन के लिए विधि-विधान पूर्वक छाया-पात्र का दान करना चाहिए।
सभी प्रकार के रोगों को मिटाने के उपाय
दान मन्त्रः
आयुर्बलं यशो वर्च आज्य स्वर्ण तथाऽमृतम् । आधारं तेजसा यस्मादतः शान्तिं प्रयच्छ मे ।। मन्त्रेणानेन विप्राय सर्वरोगोपशान्तये । पात्रं सुवर्ण सहितं दद्यात्संकल्पपूर्वकम् ।।
६४ पल के कांस्य पात्र में घृत भरकर उसमें एक निष्क सुवर्ण डाल देना चाहिए। उस घृत में रोगी अपने पैर से मस्तक पर्यन्त सम्पूर्ण छाया का अवलोकन करे। इसके बाद सत्पात्र ब्राह्मण का पूजन कर दक्षिणा सहित छायापात्र संकल्प पूर्वक दान कर देना चाहिए। इस विषय में उत्तम बात यह है कि अपने सामर्थ्य के अनुसार पात्र और स्वर्ण का दान बुद्धिमान पुरुष करे। दान करते समय आयुर्बलं वाला मन्त्र पढ़े ।
दान मन्त्रः
येमां रोगाः प्रबाधन्ते देहस्थाः सततं मम् । गृहणीष्व प्रतिरूपेण तान्रोगाद्विज सत्तम ।।
गृहणीद्वाह्मणस्तदा । बाढमित्येव तद्रूपं ततो रोग प्रदातासौ दीर्घमायुः प्रपद्यते ।। तण्डुलानां तु यत्पात्रं मुख्य तत्कांस्य सम्भवम् । दत्वा दानं तु तत्काले द्विजास्यं नावलोकयेत ।।
सभी प्रकार के रोगों को मिटाने के उपाय
सभी रोगों की निवृत्ति के लिए व्याधि प्रतिरूप का दान करना चाहिए। सोने, चाँदी अथवा ताबें का अपनी शक्ति के अनुसार १०० निष्क, ५० निष्क अथवा ३० निष्क का व्याधि प्रतिरूप बनाना चाहिए। सुन्दर पात्र को चावल से परिपूर्ण कर उस पर व्याधि प्रतिरूप को रखे। वस्त्राभूषण से उसे सुसज्जित करे और उसका विधिवत पूजन करके ‘ये मां रोगा…..’ मन्त्र पढ़ते हुए ब्राह्मण को निवेदन करे (प्रदान करे)। इस प्रकार से दान करने पर व्यक्ति रोगमुक्त होकर दीर्घायु प्राप्त करता है। जिस पात्र में चावल रखा जाय, वह कांसे का हो तो अति उत्तम है। दान देकर उस समय फिर उस दान लेने वाले ब्राह्मण का मुख नहीं देखना चाहिए।
प्रायेण सूर्यः सर्वेषां रोगाणामधिदैवतम् । आरोग्यं भास्करादिच्छेदिति प्रख्या श्रुतिः स्मृतिः ॥
प्रायः सूर्य को सभी रोगों का अधिदेवता कहा गया है, इसलिए शृति, स्मृति का वचन है कि आरोग्य-कामना के लिए सूर्य की उपासना करनी चाहिए।
सर्वव्याधि निवारक श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का अत्यन्त प्राचीन काल से ही रोग व्याधि के निवारणार्थ प्रयोग होता आया है। देव बाधा, भूतबाधा प्रेत-पिशाचादि बाधा, कृत्या, अभि चारादि के निवारणार्थ वैष्णवमार्गी प्रयोगों में इसका प्रथम स्थान रहा हैं। मैंने अपने जीवन में स्वयं इसके शताधिक प्रयोग किये कराये है जो बहुत ही सुखद-परिणाम देने वाले रहे हैं।
सात्विक व्यक्तियों को इसका प्रयोग बहुत लाभ देता है। ग्रह-शान्ति, अभिचारादि निवारण, पारिवारिक क्लेश निवारण, रोग आदि का निवारण करने के लिए इसके सौ, सवा सौ, पाँच सौ अथवा एक हजार पाठ करने, कराने चाहिए। हवन नामावली से करना चाहिए। अधिक गम्भीर स्थितियों में सम्पुटित पाठ का प्रयोग करना चाहिए।
सम्पुटमन्त्र
रोगार्ती मुच्यते रोगाद बद्धो मुच्येत बन्धनात् । भयान् मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ।।
सर्वव्याधि, रोग, बाधा निवारण के लिए ‘महाभारत’ में विष्णु सहस्त्रनाम का विधान दिया गया है। वह इस प्रकार है-
सहस्रनाम स्तोत्रं च सर्वं वारत्रयं जपेत् । मृत्युरोग प्रशान्त्यर्थं आत्मनश्च शुभाप्तये||
मुहूर्त का निश्चय कर प्रातः काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर अपने आसन पर पूर्वाभिमुख बैठे । आचमन, प्राणायाम कर देशकाल का उच्चारण करके संकल्प करें-
मम अमुक व्याधे समूल नाशद्वारा सद्यः आरोग्यार्थं श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं अमुक संख्यया विष्णु सहस्त्रनाम जपं करिष्ये ।
इस प्रकार संकल्प करने के उपरान्त गणेश का स्मरण करके अपने सामने आसन पर पुस्तक की स्थापना करे। पुस्तक की भगवान विष्णु का स्वरूप मानते हुए पंचोपचार से पूजन करके निम्नलिखित प्रकार से शाप-विमोचन करे-विनियोगः
अस्य श्री विष्णोः सहस्रनाम्नां रुद्रशापमोचन मन्त्रस्य महादेव ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्री रुद्रानु ग्रहशक्तिर्देवता सुरेशः शरणं शर्मेति बीजम् अनन्तो हुतभुग्भोक्तेति शक्तिः सुरेश्वरायेति कीलकम् रुद्रशाप विमोचने विनियोग ।
करन्यासः
ॐ क्लीं हां अंगुष्ठाभ्यां नमः (दोनों हाथों के अंगूठों के अग्र भाग को परसपर मिलायें)
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । (दोनों तर्जनीयों को भी मिलायें)
ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः । (दोनों मध्यमाओं को भी मिलायें)
ॐ हैं अनामिकाभ्यां नमः । (दोनों अनामिकों को मिलायें)
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । (दोनों कनिष्ठिकाओं को भी मिलायें)
ॐ ह्रः करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः । (दोनों हथेलियों और उनके पृष्ठ भागों को परस्पर मिलायें)
हृदयादि न्यासः
ॐ क्लीं ह्रां हृदयाय नमः । (दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियों से हृदय का स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा । (दाहिने हाथ की तर्जनी मध्यमा उंगलियों से सिर के तालु स्थान का स्पर्श करें)
ॐ हूं शिखायै वषट् । दाहिने हाथ की मुट्ठी बाँधकर अंगूठे से शिखा का स्पर्श करें)
ॐ हैं कवचाय हुम् । (दाहिने हाथ से बाँये कन्धे का और बाँहे हाथ से दाहिने कन्धे का कैचीनुमा मुद्रा बनाकर एक साथ स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । (दाहिने हाथ की कनिष्ठिका को अंगूठे से बाँधकर शेष तर्जनी से दाँए नेत्र का अनामिका से बाएँ नेत्र का और मध्यमा से मस्तक के मध्य स्थित तीसरे नेत्र का एक साथ स्पर्श करें)
ॐ ह्रः अखाय फट् । (दाहिने हाथ सिर के चारों ओर दक्षिणावर्त घुमाकर, बाँये हाथ की हथेली पर दाहिने की तर्जनी और मध्यमा से ताली बजाये)ध्यानम्
तमाल श्यामल तनुं पीतकौशेय वर्णमूर्तिमयं देवं ध्यायेन्नारायणं वाससम् । विभुम् ॥
इस प्रकार से ध्यान करके मानसोपचारों से पूजन करे। ॐ क्लीं हां हूं हैं हाँ हुः स्वाहा, इस मन्त्र का दस अथवा सौ बार जप कर कुछ जल छोड़कर प्रार्थना करे-
ॐ श्री विष्णोसहस्रनाम स्तवोः रुद्र शाप विमुक्तो भव ।
इस प्रकार से प्रार्थना करके निरन्तर सहस्रनाम का पाठ करे। इस प्रकार से बिना शाप विमोचन किये जो विष्णु सहसनाम का पाठ करता है, उसके समस्त शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं। इसलिए शाप-विमोचन अवश्य करना चाहिए।
विष्णोः सहस्रनाम्नां यो ह्यकृत्वा शापमोचनम् । पठेच्छुभानि सर्वाणि स्युस्तस्य निष्फलानि तु ॥
अब आगे विष्णु सहस्त्रनाम के न्यास-ध्यान का प्रकार लिखते हैं। सर्वप्रथम दाहिने हाथ में जल लेकर निम्नलिखित विनियोग पढ़कर जल गिरा दें-
ॐ अस्य श्री विष्णोर्दिव्य सहस्त्रनाम स्तोत्र माला मन्त्रस्य श्री भगवान वेदव्यास ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्री कृष्णः परमात्मा देवता आत्मयोनिः स्वयं जात इति बीजम् देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः शंखभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम् त्रिसामा सामगः सामेति कवचम् शांर्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम् ॐ विश्व विष्णुर्वषट्कार इति ध्यानम् श्रीकृष्ण पीत्यर्थे अमुक रोग निवारणार्थे नाम सहस्रपाठे विनियोगः ।
विनियोग पढ़ते समय अमुक के स्थान पर रोग का नाम लें। इसके उपरान्त निम्नलिखित प्रकार से न्यास करें-
ऋष्यादिन्यासः
ॐ वेदव्यास ऋषये नमः शिरसि (दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियों से सिर का स्पर्श करें)।
ॐ अनुष्टुप् छन्दसे नमो मुखे। (दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियों से मुख का स्पर्श करें)।
ॐ श्रीकृष्ण परमात्मदेवतायै नमः हृदये। (दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियों से हृदय का स्पर्श करें)
मन्व-चिकित्सा साधना
ॐ आत्मयोनिः स्वयं जात इति बीजाय नमो गुहो। (दाहिनेहाथ की पाँच उंगलियों से गुह्य स्थान की ओर संकेत करें)
ॐ देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तये नमः पादयोः। (दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियों दोनों पैरों का स्पर्श करे)
ॐ शंख भृन्नन्दकी चक्रीति कीलकाय नमः सर्वागे। (दोनों हाथों से सिर से पैर तक के समस्त अंगों का स्पर्श करें)
करन्यासः
ॐ विश्व विष्णुर्वषट्कार इत्यंगुष्ठाभ्यां नमः। (दोनों हाथों के अंगूठों के अग्रभाग को परस्पर मिलायें)
मिलायें) ॐ अमृतांशूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः। (दोनों तर्जनीयों को भी
मिलायें) ॐ ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मेति मध्यमाभ्यां नमः । (दोनों मध्यमाओं को भी
ॐ सुवर्णबिन्दु रक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः। (दोनों अनामिकाओं को भी मिलाये)
ॐ आदित्यो ज्योतिरादित्य इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः । (दोनों कनिष्ठकाओं को भी मिलायें)
ॐ शांर्गधन्वा गदाधर इति करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः । (हथेलियों और उनके पृष्ठ भागों को परस्पर मिलायें)
हृदयादिन्यासः
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इति हृदयाय नमः। (दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियों से हृदय का स्पर्श करें)
ॐ अमृतांशद्भवो भानुरिति शिरसे स्वाहा। (दाहिने हाथ की तर्जनी मध्यमा से सिर के तालु स्थान का स्पर्श करें)
ॐ ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मेति शिखायै वषट् । (दाहिने हाथ की मुट्ठी बाँधकर अंगूठे से शिखा (चोरी) का स्पर्श करें)
ॐ सुवर्ण बिन्दु रक्षोभ्य इति कवचाय हुम्। (दाहिने हाथ से बाँधे कन्धे और बाँये हाथ से दाहिने कन्धे का एक साथ स्पर्श हाथ बाँधकर करें)
ॐ आदित्यो ज्योतिरादित्य इति नेत्रत्रयाय वौषट् । (दाहिने हाथ की कनिष्ठिका को अंगूठे से बाँधकर तर्जनी से दाँये नेत्र, अनामिका से बाँये नेत्र और मध्यमा से मस्तक में विराजमान तीसरे नेत्र का एक साथ स्पर्श करें)
ॐ शांर्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्राय फट् । (दाहिने हाथ को दक्षिणावर्त सिर के चारों ओर घुमाकर बाँये हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा से ताली बजायें)
इस प्रकार से न्यास करने के उपरान्त हाथ में पीले पुष्प लेकर विष्णु भगवान का ध्यान करें-
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं । विश्वधारं गगन सदृशं मेघवर्ण शुभांगम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं ।
वन्दे विष्णुं भवभय हरं सर्वलोकैक नाथम् ।।
इस प्रकार से ध्यान करने के उपरान्तमानसोपचार से पूजन करे-
ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि विष्णवे नमः ।
ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि विष्णवे नमः ।
ॐ यं वायव्यात्मकं धूपं आघ्रापयामि विष्णवे नमः ।
ॐ रं वहन्यात्मकं दीपं दर्शयामि विष्णवे नमः ।
ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि विष्णवे नमः ।
ॐ सं सर्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचारान् समर्पयामि विष्णवे नम ।
मानसोपचार से पूजन करने के उपरान्त पुष्प समर्पित करके निम्नलिखित मन्त्रों को पढ़ते हुए भगवान को प्रणाम करें-
ॐ नारायणाय नमः ॥१॥
ॐ नराय नमः ॥२॥
ॐ नरोत्तमाय नमः ॥३॥
ॐ देव्यै नमः ।।४।।
ॐ सरस्त्वयै नमः ॥५॥
مد व्यासाय नमः ॥६॥
इस प्रकार से प्रणाम करने के उपरान्त स्पष्ट उच्चारण के साथ स्तोत्र का पाठ करें। इसका पुरश्चरण रोग के अनुसार एक हजार, दस हजार अथवा एक लाख पाठ का होता है। पाठ कां दशांश हवन भगवान के प्रत्येक नाम के अन्त में स्वाहा लगातेहुए तिल खीर, घी से हवन करना चाहिए हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोजन पूर्ववत् कराना चाहिए। शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ के लिए अच्युचानन्त गोविन्द इस नामत्रय से सम्पुटित पाठ कराने चाहिए।
अथवा-
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमः ॥
अथवा
ॐ अपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयोभूयो नमाम्यहम् ।।
इस मन्त्र से सम्पुटित विष्णु सहस्त्रनाम के जप (पाठ) से सभी रोग दूर होते है, स्वास्थ्य लाभ होता है।
विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान के एक हजार नामों का संकलन है। इसके पाठ से अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि होती है। भगवान के एक-एक नाम के साथ नमः शब्द का उच्चारण करते हुए तुलसी पत्र, पंचमेवा, पीतपुष्प आदि चढ़ाकर भगवान का अर्चन किया जाता है जिसे सहस्रार्चन कहते हैं। इसी प्रकार से प्रत्येक नाम के साथ ‘स्वाहा’ का उच्चारण करते हुए हवन किया जाता है। यहाँ भगवान के एक हजार नाम चतुर्थी विभक्ति में लिखे जा रहे हैं। आवश्यकतानुसार पूजन करते समय इन नामों के साथ नमः और हवन करते समय स्वाहा जोड़ ले ।